जय श्री कृष्णा

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         🤏। कर्षति आकर्षति इति कृष्ण: । 

     🤏।।कृष्ण यानी मेघश्याम गहन नीलवर्ण  ।। 

        जहां कर्षण होता है , ऊसका वर्ण हमेशा गहननील ही होगा ।  जीस रंग मे प्रकाश तथा गरमी भी खींच ली जाती है वह रंग गहननील ही है । विश्व की ग्रहमाला मे जीस स्थान पर  प्रकाश, उष्णता, उर्जा ईतना ही नही आपीतु विकिरण (radiation) एवं वस्तू (matter) भी खैंच ली जाती है ऊसे

कृष्णविवर  (black hole) का नामाभीधान है । समझने के लिए आसान है परंतु यही गहननील रंगत का अनुभव साधक जनो को शरीर त्याग के समय आता है । 

। आपुलेची मरण, पाहिले म्या डोळा ।

। तो हा सोहळा, अनुपम । 

यह एक मराठी की अभंगवाणी है । जिसका अर्थ है । 

।।अपनी ही मृत्यु , मैने स्वयं अपने नेत्रों से देखी ।।

।। ये तो ऊत्सव है , अद्भुत अनुपम ।। 

          केवल साधकजन ही जीवित अवस्था मे गहन ध्यान मे ईस अनुभव को कर पाते है । मृत्यु का अनुभव कृष्ण वर्णी यमराज का वर्ण भी वही साकार कृष्ण भी वही अंतीम समय मे तार लेने वाले । माॅ कालीजी का दर्शन भी वही अंतीम समय का परम आनंद।  मुक्ती का प्रथम सोपान ।। अध्यात्मिक मार्ग मे भौतिक सांसारिक बंधनो से षडरीपुओं से मन को दुर रखना एक मृत्यु ही तो है जो आपको ईश्वर के चरणों के ओर ले जाती है । 

         कृष्णजी को एकबार समझ गये तो जीवन का अर्थ भी समझ ही गया साधक । जीवन क्या है यह समझना चाहते हो ना बस कृष्ण को ही समझ ले ।। 

         भगवन के दस अवतारों मे आंठवा अवतार है पुर्ण परब्रह्म कृष्ण वासुदेव देवकी जी की आंठवी संतान भी कृष्ण जी ही है तो अष्टांगयोग मे आंठवी और अंतीम पुर्ण अवस्था जो है वह है ” समाधी ” योगीयों का राणा वह समाधी केवल नाम लेने से ही अपने भक्तजनों को दे देता है जो योगीयों को भी कष्टसाध्य है ।

         प्रभु श्रीराम जी “मर्यादा पुरुषोत्तम” राम नाम सीधा जीवन भी सीधासाधा । सांतवे अवतार श्रीराम जी ने अपने जीवन मे कीसी भी मर्यादा का उल्लंघन कीया हो एसा ऊदाहरण वाल्मीकी रामायण मे कहीं नही मीलता तो ऊसके ऊलटे आंठवे अवतार मे प्रभु श्रीकृष्ण जी ने कीसी भी मर्यादा को नही माना । सभी वीद्याओं मे प्रवीण थे वह । श्रीराम जी जन्म दीन मे बारह बजे का तो श्रीकृष्ण जी का मध्यरात्री मे बारह बजे का श्रीराम जी को शत्रु भी नितीवान मीले तो श्रीकृष्ण जी को शत्रु  कपटवीद्या मे प्रवीण मीले । 

       । या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागर्ति संयमी ।

        (भगवद्गीता अध्याय -२ ,श्लोक क्रमांक – ६९ ) 

              साधना करनी होती है रात्री मे सभी चराचर जगत निद्रावश होता है वह भैरव काल भी कहलाता है । ईसी काल मे भगवान शिव भैरवरूप मे समाधीलीन होते है ईसी समय जगत तारक कृष्ण जी का भी जन्म होता है आत्मा के तारक का ।।

      जन्म होते ही जन्मस्थान को छोड़कर गोकुल आना पडा । गोकुल, गो + कुल,  गो यानी इंद्रिय व कुल यानी स्थान यानी अपना शरीर. ईस शरीरका  संर्वधन क्यु करना है 

         ।। शरीरं आद्यम् खलु धर्म साथनम् ।।

शरीर यह साधन (device) है और आत्मा का अनुभव यह योगीजनो का परम साध्य है ।।

।।देह ईश्वरीय मंदिर भीतर आत्मा परमेश्वर।। अब काफी कुछ समझ गये होंगे 

।।गोकुल मे  कृष्णजी केवल कुमारावस्था तक ही रहे ।।

।। यानी राधा रानी केवल ऊसी अवस्थातक कृष्णजी के साथ रही है ।।

        भारतीय संस्कृती मे कई शब्द एसे है जो ऊस संज्ञा का स्वभाव दर्शा देते है । सिंह का ऊल्टा हुआ हिंसा , अब राधा का ऊल्टा हुआ धारा । धारा समझने के लिए कुछ योगसाधना के अनुभव आवश्यक रहेंगे । साधकों का अनुभव होता है की साधना करते समय बदन मे कंपकंपी होती है लगता है जैसे शरीर पर सांप घुम रहै है । साधना मे प्रगती के साथ ही कुंडलीनी भी चलायमान होती है ।

आज के विज्ञान ने भी DNA की रचना सर्पाकार (spiral) बताई है । यही धारा का अनुभव है । योग नाडीयां यही है वे दीखाई नही देती है परंतु ऊनकी अनुभुती होती है । अत्यानंददाई । 

यही राधाकृष्ण का प्रेम है । 

समझने वाले के लिए जगत का ग्यान है यह ।। 

कृष्णजन्मोत्सव पर्व की असीम शुभकामनाए 

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”सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?”
#Mystic_Wanderer

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