परिवार के प्रति कर्तव्य

परिवार हृदय का देश है। प्रत्येक परिवार में देवदूत होता है जो अपनी
कृपा से, अपनी मिठास से, अपने प्रेम से परिवार के प्रति कर्तव्य को निभाने
में थकावट को नहीं आने देता तथा दुखों को बाँटने में सहायक होता है। बिना
किसी उदासी के यदि शुद्ध प्रसन्नता का अनुभव होता है तो वह इस देवदूत की ही
देन है। जिन व्यä किे दुर्भाग्य से परिवार का सुख देखने को नहीं मिल पाया,
उस के हृदय में एक अनजानी उदासी बनी रहती है। उस के हृदय में ऐसी शून्यता
भरी रहती है जिसे
भरा नहीं जा सकता। जिन के पास यह सुख है, उन्हें इस के महत्व का अहसास
नहीं होता तथा वह अनेक छोटी छोटी बातों में अधिक सुख मानते हैं। परिवार में
एक सिथरता रहती है जो कहीं अन्य नहीं पार्इ जाती। हम उन के प्रति जागरूक
नहीं होते क्योंकि वह हमारा ही भाग हैं तथा अपने आप को जानना कठिन है। पर
जब इस का साथ छूट जाता है तो ही इस के महत्व का पता चलता है। क्षणिक सुख तो
मिल जाते हैं किन्तु स्थार्इ सुख नहीं मिल पाता। परिवार की शाँति उसी
प्रकार की है जैसे झील पर की हलकी लहर, विश्वास भरी नींद की मीठा अनुभव,
वैसा ही जैसा बच्चे को अपनी माँ की छाती से लग कर मिलता है।

यह देवदूत स्त्री है। माँ के रूप में, पतिन के रूप में या बहन के रूप में।
स्त्री ही वह शä हिै जो जीवन प्रदायिनी है, वह ही उस परम पिता की
संदेशवाहिनी है जो सारी सृषिट को देखता है। उस में किसी भी दुख को दूर करने
का शä हिै। वह ही भविष्य निर्माता है। माँ का प्रथम चुम्बन बच्चे को प्रेम
की शिक्षा देता है। जवानी में उस का चुम्बन ही पुरुष को जीवन में विश्वास
जगाने में सहायक होता है। इस विश्वास में ही जीवन को सम्पूर्ण बनाने की शä
छिुपी हुर्इ है। भविष्य को उज्जवल बनाने की कला है। वह ही हमारे तथा हमारी
अगली पीढि़यों के बीच की कड़ी है। इस कारण ही हमारे पूर्वजों ने स्त्री को
पूज्य माना है।परन्तु
आज समाज में स्त्री के प्रति आदर की वह भावना विलुप्त सी हो गर्इ है। जहाँ
एक ओर वह व्यवसाय के हर क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष अपने को सिद्ध कर रही
है, वहीं दूसरी ओर उसे प्रदर्शन की वस्तु बनाने की भी होड़ लगी हुर्इ है।
चल चित्र तथा दूरदर्शन चैनल द्व
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सस्ती लोक प्रियता प्राप्त करने के लिये उस का शोषण किया जा रहा है। इस
भौंडे प्रदर्शन का विपरीत प्रभाव युवकों पर पड़ रहा है तथा इस के
परिणामस्वरूप स्त्री के प्रति अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
पाश्चात्य जगत की अन्धाधुन्ध नकल के कारण सुन्दरता के मापदण्ड ही परिवर्तित
हो गये हैं। भारत में सदैव आन्तरिक सौन्दर्य को उच्च माना है। यह स्त्री
तथा पुरुष दोनों पर लागू होता है। यह बात स्पष्ट है कि स्त्री किसी भी अर्थ
में पुरुष से कम नहीं है। तथा इस कारण उस का व्यवसाय में आना स्वाभाविक
है। पूर्व में उसे अन्यायपूर्वक इस से वंचित रखा गया है परन्तु उस सिथति का
समाप्त होना स्वागत योग्य है। सामाजिक सम्बन्ध, शिक्षित होने की शä,ि
प्रगति करने की इच्छा एक समान है तथा यही मानवता की पहचान है। स्त्री को
परिवार का पोषक मानना ही परिवार के प्रति कर्तव्य निभाने की प्रथम पायदान
है। स्त्री का आदर ही परिवार के प्रति कर्तव्य का अंग है। उस की शä,ि उस की
प्रेरणा ही परिवार के विशिष्टता है।
”सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?”
#Mystic_Wanderer

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